
‘आज तकरीबन तीन साल हो गया है और तबसे ऐसा एक भी दिन नहीं जब; मैं भूल सकी हूं जो मेरे साथ हुआ। कभी कभी जब मैं सड़क पर चल रही होती हूं और अपने पीछे कदमों की आहट सुनती हूं तो मैं पसीने से भींग जाती हूं और इस डर से कि चिल्ला न पडूं अपने होठों को कस के दांतों से दबा लेती हूं। मैं दोस्ताना स्पर्श से भी असहज महसूस करती हूं ; कोई मेरे कन्धों पर हाथ रखता है तो मुझे महसूस होता है जैसे वो मेरा गला दबा रहा है………’
हर औरत में बलात्कार का गहरा डर होता है क्योंकि इससे न केवल किसी औरत के शरीर पर आघात होता है बल्कि उसे सामाजिक तिरस्कार और भावनात्मक सदमे से भी गुज़रना पड़ता है। हमारे मन में पहला सवाल आता है – क्या कोई मेरी बात सुनेगा या समझेगा कि मैं किस हालात से गुज़र रही हूं? क्या मैं अपने किसी रिश्तेदार या दोस्त से बताऊ? उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? किन हरकतों को बलात्कार कहेंगे या किसे नहीं कहेगें? हमें यौन की सहमति और जबरदस्ती के बीच के फ़र्क को समझना होगा। हमें अपनी आम सोच और गलत विश्वासों को टटोलने की ज़रूरते हैं। मर्द बलात्कार क्यों करते हैं? क्या मैं इसे रोक सकती हूं? यदि मेरे साथ यौनिक उत्पीड़न हो तो मैं क्या कर सकती हूं? क्या मुझे पुलिस थाने या कोर्ट जाना चाहिए? वे कौन कौन से कानून हैं जो मुझे न्याय दिलाने में मदद कर सकते हैं?
